संस्कृति को विशिष्टता प्रदान करने वाले कारकों में एक प्रमुख पहलू भाषा का है। संस्कृति व्यक्ति या समाज के चिंतन का प्रतिफल होती है। जिस भाषा में आप चिंतन करते हैं उसकी प्रतिछाया आपकी संस्कृति में भी परिलक्षित होती है। इसका निहितार्थ है कि भाषा और संस्कृति का गहरा संबंध है। भाषा के बदलने से मूल्य भी बदल जाते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि संस्कृति अपनी भाषा के जरिए ही जीवित रहती है। |यदि भाषा नष्ट हो जाए, तो संस्कृति भी समाप्त हो जाती है। संस्कृति ने जिन आदर्शों और मूल्यों को हजारों वर्षो के अनुभवों के बाद निर्मित किया है, वे विस्मृति के गर्त में विलीन हो जाते है। संस्कृति भाषा पर टिकी हुई है। ठीक वैसे ही जैसे मां रूपी मिट्टी से जन्मा पेड़ तब तक हरा-भरा रहता है, जब तक उस मिट्टी से जुड़ा है, जबकि मिट्टी से कटते ही वह मुरझा जाता है। यही बात स्वभाषा या मातृभाषा पर भी लागू होती है।
कदाचित इसी कारण से मातृभाषा को मां का दर्जा दिया गया है। तो क्यों न हम अपनी मातृभाषा के प्रति ठीक वैसे ही आदर और सम्मान की भावना रखें जैसी हम अपनी मां के प्रति रखते हैं। और जिस देश की भाषा हिंदी जैसी संपन्न और समृद्ध भाषा हो तो, वहां सम्मान और गौरव का भाव हमारे भीतर स्वभाविक रूप से होना ही चाहिए।
हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। ब्रिटिश काल में हिंदी को अपदस्थ करने के बहुत प्रयास हुए, लेकिन तत्कालीन नेताओं और साहित्य मनीषियों ने इसका प्रबल विरोध किया। उन्होंने एक स्वर में हिंदी को भारत की मातृभाषा कहा। आज जब हम भारत की आजादी के 75 वर्ष ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ के रूप में मना रहे हैं तो हमें उन नेताओं और भाषा मनीषियों के प्रयासों को स्मरण करते हुए हिंदी भाषा पर गौरव करना चाहिए और उसे दिल से अपनाना चाहिए।
इसीलिए 16 से 29 सितम्बर 2022 तक भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा मनाए जाने वाले हिंदी पखवाड़े के अवसर पर यही कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि ‘हिंदी मात्र भाषा नहीं बल्कि मातृभाषा है।’’ आइए, इसका सम्मान करें, इसे अपना गौरव बनाएं और अपनी संस्कृति से जुड़े।
मैं बीआईएस के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों से अनुरोध करता हूं कि वे हिंदी पखवाड़े के दौरान आयोजित की जाने वाली विभिन्न राजभाषा प्रतियोगिताओं में उत्साहपर्वूक भाग लेकर राजभाषा हिंदी का गौरव बढाएं।
विनोद कालरा
प्रमुख (हिंदी विभाग)